#1.
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं साँसों के दो तार लिए फिरता हूँ!
मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा उनको, जो जग गीत का गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!
व्याख्या: इस कविता के माध्यम से ‘बच्चन’ जी कहते हैं कि वह संसार में अपने जीवन को एक बोझ के समान मानते हैं। परंतु जितना भी यह जीवन है इसमें वह सभी को प्यार बाटना चाहते हैं। वह अपने जीवन में सभी पलों को दूसरों को प्यार देकर बिताना चाहते हैं क्योंकि उनके मन में सभी के लिए प्यार भरा हुआ है। किसी अपार शक्ति ने उसको स्पर्श करके उनमे झंकार पैदा कर दिया है। जिससे उसके जीवन में दूसरों के प्रति प्रेम भर गया है। बच्चन जी के जीवन की सभी अभिलाषाएँ, उमंग पूर्ण हो चुकी है। इसलिए उन्हें जीवन से कोई मोह नहीं है फिर भी दूसरों को प्यार देने के लिए वह अपना जीवन जी रहे अर्थात अपनी साँसों के दो तारों को वो दूसरों के प्यार के लिए निस्वार्थ भाव से चला रहे हैं।
कवि का अपने जीवन में मात्र एक ही कार्य हैं-प्रेम की बातों को कहना और सुनना वह स्नेह व प्रेम की बातें करते समय कभी भी दुनिया व समाज की परवाह नहीं करते। वो तो सिर्फ सभी से प्रेमपूर्वक बातें करना अपना कार्य मानते हैं। वह जानते हैं कि इस स्वार्थी संसार में केवल उनका अधिक सम्मान होता है जो इस संसार की बातों व कार्यों में लीन रहते हैं, अर्थात जो सभी के साथ अपनी स्वार्थ हेतु कार्य करते हैं व अपने व्यवसायों व कार्यों में लगे रहते हैं। परंतु कवि अपने प्रेम करने वाले मन के कारण प्रेम का ही गुणगान करते रहते हैं। उनका जीवन केवल प्यार बांटने के लिए ही इसलिए वो अपने प्रेम व स्नेह से भरे मन को ही सबके सामने रखते और प्यार की बातें करते हैं।
#2.
मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ,
है यह अपूर्ण संसार न मुझको भात
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ!
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मगन रहा करता हूँ;
जग भव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ!
व्याख्या: कवि कहता है कि वह अपने हृदय में उसको जीवन के प्रति उत्तेजित करने वाले भावों को रखते हुए और कभी अपने मन में दूसरों को प्यार देने वाले उपहार समान भाव को भी अपनाएं हुए अर्थात कवि के हृदय में दुख सुख दोनों प्रकार के भागों की जगह है। बच्चन जी इस वास्तविक संसार को अपनी दृष्टि में अधूरा मानते जिसमें कल्पना का कोई स्थान नहीं है इसलिए उसको ये संसार अच्छा नहीं लगता। वे अपने मन में सपनों से भरपूर कल्पना का संसार लिए हुए है अर्थात उनके हृदय में कल्पना वास्तविकता से मिश्रित संसार बना हुआ जिसमें उनको आनंद की प्राप्ति हो। कवि कहते हैं कि वह स्वयं अपने हृदय अग्नि को जलाकर रख और इस प्रेम में अपने आप को मग्न करके दूसरों को भी प्रेम में लिप्त कर लेते है। वह जीवन की दोनों प्रमुख स्थितियों सुख-दुख में इस प्रेम के कारण हिम्मत रखते हुए जीवन के सभी कार्यों व संघर्षों का प्रेम व खुशी से सामना करते हैं। कभी कहते हैं कि यह सारा संसार मोह माया के तूफान रूपी इस सागर को पार करने के लिए न जाने कितने मार्गों रूपी नाव को बनाने में लगा है। अर्थात संसार के सभी लोग मोक्ष प्राप्ति के लिए अनेक मार्गों द्वारा प्रयत्नरत लेकिन बच्चन जी इस समय भी इस माया रूपी तूफान की लहरों पर व जीवन के विभिन्न मायाजाल में भी न फंसकर अपने आप को मस्त व प्रसिद्ध चित्र बनाए रखे हुए बनाए रखे।
#3.
मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
उन्मादाँ में अवसाद लिए फिरता हुँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं , हाय, किसी की याद लिए फिरता हुँ !
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादान वहीं हैं, हाथ, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हुँ, सीखा ज्ञान भुलाना !
व्याख्या: प्रस्तुत पंक्तियों में कवि अपनी जवानी की उन यादों को ताजा करता है जब उनमें अत्यधिक जोश या जवानी की मस्ती व अत्यधिक खुशी का भाव उनके मन में रहता था। लेकिन इस मस्ती के व खुशी के भाव के साथ-साथ उनमें कुछ थकावट दुख से उत्पन्न कमजोरी भी उपस्थित थी जिसका कारण उनको उस प्रियजन की याद आना है जो उन्हें यौवन में अत्यधिक प्रिय थी। उसी प्रियजन की याद उन्हें अंदर ही अंदर रुला देती है लेकिन यौवन की मस्ती ऊपरी मन से उन्हें हंसाती है अर्थात कवि को अपनी यौवन की उन प्रिय यादों में सुख दुख दोनों भाव का स्मरण हो आता है।
कवि कहता है कि यदि मनुष्य सच्चे दिल से कोशिश (प्रयत्न) करे तो सब सुख दुख की स्मृतियों का त्याग हो सकता है और वास्तविक जीवन के सच को कोई क्यों नहीं समझ रहा है। इस सत्य का ज्ञान सभी मोह माया को त्यागने के बाद ही हो सकता है। कवि को इस बात का दुख है कि केवल वही पर मूर्ख या ना समझ व्यक्ति होते हैं जहां पर कोई अधिक बुद्धिमान व समझदार व्यक्ति हो। अर्थात अपने अनजाने पन का बोध तभी होता है जब कोई यह एहसास कराएं। कवि इस बात को समझ नहीं पा रहा है कि संसार के लोग बार-बार ऐसे एहसास करके क्यों मूर्ख बन रहे हैं और उन बुद्धिमान व्यक्तियों के बहकावे में आ जाते हैं व उनके संदेशों को सीखते रहते हैं। जबकि कवि आपने बारे में कहता है कि मैं एक ऐसी विधि सीख रहा हूं जिस से मैं अपने ज्ञान को भूल सकूं तथा दूसरों को मूर्ख ना बनाकर उनमें प्यार का संचार कर सकूं।
#4.
मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज कितने जग मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिस पर भूपों के प्रासाद निछावर,
मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ।
व्याख्या─ कवि अपनी तुलना सांसारिक मोह में फंसे हुए लोगों से करता है। कवि कहता है। कि मेरा स्वाभाव और जग के लोगो का स्वाभाव व विचार अलग-अलग है। यह संसार मोह माया में फंसा हुआ है। इसलिए कवि उसके साथ अपने संबंध में भिन्नता मानता है। क्योंकि तभी तो अपने विचारों एवं काल्पनिकता के द्वारा ना जाने कितने ऐसे संस्कारों को बनाकर तोड़ता रहता है। अर्थात कवि की कल्पना का क्षेत्र संसार के क्षेत्र से बहुत अधिक है। संपूर्ण संसार इस पृथ्वी पर माया के अधीन होकर धन दौलत इकट्ठा करने में लगा हुआ है लेकिन कवि को इस वैभव से कोई लगाव नहीं है वह अपने जीवन के प्रति मोह नहीं रहता है और ना ही धन दौलत का लालच। कवि प्यार की महत्ता दर्शाते हुए कहते हैं कि वह अपने रोने अर्थात दुख में भी सभी के लिए प्रेम और अपनेपन की भावना को लिए हुए हैं। वह अपनी ईर्ष्या व अपनी क्रांति को जागृत करने वाली वीरता से परिपूर्ण की आग को भी अपनी मधुर व शीतल आवाज द्वारा दबाए हुए हैं। कवि कहता है कि उसके पास दया व प्रेम जैसे ऐसे गुण हैं जो देखने में मात्र गुण या खंडहर के सामान लगते हो परंतु इन गुणों की महत्ता ऐसी है कि इन पर बड़े से बड़े राजाओं के महल भी समर्पित हो जाते हैं। अर्थात कवि संतुष्टि, दया व प्रेम रूपी टूटे-फूटे मकान के अंश के लिए विशाल भवन अर्थात धन वैभव सभी को न्योछावर कर देते हैं।
#5.
मैं रोया, इसको तुम कहाते हो गाना,
मैं फूट पडा, तुम कहते, छंद बनाना,
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक क्या दीवान”
मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ
मैं मादकता निद्भाशष लिए फिरता ही
जिसकी सुनकर ज़य शम, झुके; लहराए,
मैं मरती का संदेश लिए फिरता हुँ
व्याख्या─ इन पंक्तियों में कभी कहना चाहता है कि उसकी हर दुख की भावना को सभी लोग एक अलग अर्थ से स्वीकार करते हैं। जब कवि अपने किसी दुख के कारण होता है तो उसकी मधुर आवाज के कारण लोग उसके रोने में भी संगीत का अनुभव कहते हैं और जब वह अपने दुखद विचारों को जोर-जोर से व्यक्त करता है तो लोग समझते हैं कि वह अपनी छन्दयुक्त कविताएं बना रहे हैं। कवि चाहता है कि यह संसार उसे एक कवि कह कर ना पुकारे, फिर भी ना जाने क्यों वह एक कवि के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त कर रहा है। कवि तो अपने को मात्र एक मुग्धा प्रेमी मानता है जो इस धरती पर प्रेम को फैलाना चाहता है।
कवि कहता है─ कि मैं तो उन पृथ्वी के पागल, मुग्ध प्रेमियों के रूप को धारण किए हुए हूं जो हर समय प्रेम के नशे में चूर होकर फिरते रहते हैं। अर्थात कवि के पास अनमोल काव्य रूपी, प्रेम रूपी नशे का खजाना है। इस अनमोल काव्य को सुनकर सारा संसार प्रसन्नता से झूम उठता है और अपनेपन की भावना को ग्रहण करके खुशी से खिलकर लहराने लगता है। ‘बच्चन’ जी इसी प्रेम वा मस्ती के संदेश को सारे संसार में फैलाते हैं। जिसे सब मस्ती में झूमने, खुशी से लहराने लगते हैं।