उत्तर प्रदेश एक अंतरस्थलीय राज्य है। जहां मछली पालन व्यवसाय और मत्स्य उत्पादन की दृष्टि से बहुत ही अच्छा है। ग्रामीण तालाबों एवं पोखरो के रूप में तमाम मूल्यवान जलसंपदा पर्याप्त है। मछली पालन व्यवसाय नि:संदेह विटामिन युक्त उत्तम भोजन और आय का उत्तम साधन है।
देश में बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए रोजी-रोटी की समस्या के समाधान के लिए बहुत ही जरूरी है कि आज के विकासशील योग में विभिन्न प्रकार के योजनाओं का क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाए। बढ़ती बेरोजगारी एवं भूमिहीन,निर्धनों, मछुआरों आदि के लिए रोजगार के संसाधनों का सृजन भी किया जा सके।
तालाब का चयन
मछली पालन हेतु 0.2से 2.00 हेक्टेयर ताके ऐसे तालाबों का चुनाव करना चाहिए। कम से कम वर्ष में 8 से 9 माह अथवा साल भर पानी बना रहे। तालाबों एवं पोखरो को सदाबहार रखने के लिए जल की पूर्ति का संसाधन उपलब्ध होना चाहिए। तालाब में साल भर 1 से 2 मीटर पानी अवश्य रहे। मछली पालने वाले तालाब में बाढ़ से प्रभावित ना होते हो। और उन तक आसानी से पहुंचा जा सके।
तालाब का सुधार करे
बहुत से तालाब पोखरा के बांधो का कटा-फटा तथा ऊंचा नीचा पानी आने जाने का रास्ता ना हो और बाहर का पानी आकर भर जाए मछलियां तालाब से निकल जाएंगे इन सब का रखरखाव समुचित व्यवस्था करना चाहिए। पानी आने जाने के रास्ते पर बेहतर जाली लगा होना चाहिए ताकि अंदर की मछली बाहर न जा और बाहर की दुष्प्रभाव मछलियां अंदर ना आए जिससे पाली हुई मछलियों को नुकसान पहुंचने का डर बना रहता है। मछली पालने वाले गड्ढे को मई जून के महीने में अवश्य सुधार कर लेना चाहिए जिससे मत्स्य पालन समय से प्रारंभ किया जा सके।
तालाब की प्रबंध व्यवस्था
दुष्प्रभाव जलीय पौधों का उन्मूलन
मछली पालने वाले गड्ढे पोखरे के पानी की सतह पर स्वतंत्र रूप से जो तैरने वाले जलकुंभी, पिस्टिया, लेमना, अजोला आदि जड़ जमा कर सतह पर तैरने वाले पौधे जैसे कमल इत्यादि इसके अलावा जल में डूबे रहने वाले सरदार पौधे जैसे नजाज, हाइड्रिला आदि तालाब में आवश्यकता से अधिक मात्रा में होना मछली की अच्छी उत्पादन के लिए हानिकारक होता है। यह पौधे मछलियों को घूमने फिरने में असुविधा होती है। इन घासो का दुष्प्रभाव यह भी होता है प्रकाश की किरण जल में प्रवेश भी बाधित होता है। जिससे मछलियों का वृद्धि रुक जाता है।
जलीय पौधों को श्रमिकों के सहायता से निकाल बाहर फेंक देना चाहिए। और ग्रामीण क्षेत्रों में कभी भी रासायनिक दवाओं का प्रयोग न करें क्योंकि इसका विषय लापन काफी दिन तक बना रह जाता है और यह दुष्प्रभाव डाल सकता इसलिए श्रमिकों की मदद से पौधों को निकालने का काम करें।
दुष्प्रभाव मछलियों की सफाई
ऐसे तालाब जिसमें मत्स्य पालन नहीं हो रहा हो और पानी पहले से मौजूद है तो उसमें पढ़िना, सौल, गिराई, सिंधी, मांगूर आदि दुष्प्रभावी मछलियां स्वाभाविक रूप से पाई जाती हैं जिनका सफाई आवश्यक रूप से होना चाहिए। दुष्प्रभावी मछलियों की सफाई बार-बार जाल चलाकर अथवा 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्रति मीटर पानी की गहराई के हिसाब से महुए की खली के प्रयोग की जा सकती है। अगर महुआ की खली का प्रयोग किया जाता है तो 6 से 8 घंटे में सारी मछलियां मर कर ऊपर आ जाती है। जिसे उपभोग के हेतु बेचा जा सकता है। महुआ के खली का प्रभाव 15 से 20 दिन तक पानी में बना रहता है। यही नहीं यह जल के उर्वरक का कार भी करती है।
जल – मृदा का परीक्षण
मछली की पैदावार बढ़ाने के लिए मिट्टी पानी का उपयुक्त होना आवश्यक है। मत्स्य पालकों को चाहिए के अपने तालाब की मिट्टी पानी का परीक्षण मत्स्य विभाग की प्रयोगशालाओं के द्वारा निर्धारित कार्बनिक रासायनिक उर्वरकों के उपयोग हेतु वैज्ञानिक मत्स्य पालन का प्रयोग में लाएं।
जलीय उत्पादकता बढ़ाने के लिए चुने का प्रयोग
बुझे हुए चूने का प्रयोग जलकी छारीयता में वृद्धि करता है। छारीयता व अम्लीयता को संतुलित करता है। साथ साथ मछलियों को विभिन्न परजीवियो के प्रभाव से मुक्त करता है। बुझे हुए चूने का प्रयोग 250 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर किधर से मत्स्य बीज संचय से लगभग 1 महीने पूर्व एवं गोबर की खाद डालने के 15 दिन पूर्व करना चाहिए।
खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग
तालाबों एवं पोखरा में गोबर की खाद एवं रासायनिक खादों का प्रयोग किया जाता है। सामान्यतः एक हेक्टेयर के तालाब में 10 टन प्रति गोबर की खाद डालनी चाहिए। संपूर्ण गोबर की खाद की मात्रा को 10 समान मासिक किस्तों में विभाजन करते हुए तालाब में डालना चाहिए। रासायनिक खादों का प्रयोग प्रत्येक माह गोबर की खाद के 15 दिन बाद डालना चाहिए। यूरिया 200 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर, सिंगल सुपर फास्फेट 250 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर , म्यूरेट आफ पोटाश 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर 1 वर्ष में, टोटल एक साल मे 490 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर वर्ष मी डालना चाहिए।
मछली के बीज का संचय
तालाब एवं पोखरे में 50 मि.मी. या अधिक लंबाई की 5000 स्वस्थ रुप से अंगुलिकाए प्रति हेक्टेयर की दर से संचित किया जा सकता है। विभिन्न प्रकार के प्रजातियों हेतु औसत संचय अनुपात इस प्रकार हो सकते हैं।
मछलियों के प्रजातियां | 6 पर जातियों का पालन | 4 पर जातियों का पालन | 3 पर जातियों का पालन |
रोहू | 30% | 25% | 30% |
नैन | 15% | 20% | 30% |
कतला(भाकुर) | 10% | 30% | 40% |
सिल्वर कार्प | 20% | ||
ग्रास कार्प | 10% | ||
कामन कार्प | 15% | 25% |
प्रमुख रूप से मत्स्य पालन हेतु मछलियां
रोहू मछली
रोहू का वैज्ञानिक नाम (Labeo rohita) है। ये हड्डी युक्त मछली है जो ताजे मीठे जल में पाई जाती है। इसका आकार नाव की तरह होता है। जिससे तैरने में आसानी होती है। रोहू के शरीर में 7 पंख होते हैं। एक साल में एक बार अंडा फरवरी-मार्च के महीने में छोड़ती हैं। यह मछली अपने भार के अनुसार 2 से 2.5 लाख अंडा देती है।यह मछली अपने स्वाद के ऊपर मार्केट में प्रसिद्ध है।
नैनी मछली
नैनी मछली इस मछली को पंजाब मोरी, बिहार व उत्तर प्रदेश में नैनी, असम और बंगाल मे मृगल, उड़ीसा में मिरिकली, आंध्रप्रदेश मेरिमीन के नाम से जानते हैं। इस मछली में छोटे-छोटे कांटे होते हैं बच्चे नहीं खा पाते हैं कांटे की वजह से।
कतला(भाकुर) फाइटोप्लैंकटन
कतला मछली भारत, म्यांमार, बांग्लादेश एवं पाकिस्तान के स्वच्छ नदियों तथा स्वच्छ जल स्रोतों में पाई जाती हैं। इनका वैज्ञानिक नाम कतला भाकुर के नाम से जाना जाता है। ए बढ़ने वाली मछली हैं गंगा नदी की प्रमुख प्रजातियां है। सामान्यतः इस मछली को भारत के असम, बिहार, मध्यप्रदेश में कतला के नाम से उड़ीसा में भाकुर तथा, पंजाब में थरला, मद्रास थोथा के नाम से जानी जाती हैं।
सिल्वर कार्प
सिल्वर कार्प या मछली पूरे विश्व में उपलब्ध है इनका मुंह छोटा आंख छोटी होती है। इनके शरीर पर छोटे-छोटे स्केल पाए जाते हैं। इनका मुख्य भोजन फाइटोप्लैंकटन है। छोटे-छोटे पौधे जलीय सड़े गले पत्ते खाते हैं। अन्य मछलियों से जल्दी परिपक्त हो जाती है। यह अपने शरीर के भार से 80,000 से 1,00000 अंडे छोड़ती है। ए मछली अन्य मछलियों से श्रेष्ठ होती हैं। 1 वर्ष में तीन चार किलो की हो जाती हैं।
ग्रास कार्प
ग्रास कार्प इनका शरीर बड़ा सिर गोल समतल निचला जबड़ा छोटा एवं आंख छोटी होती है। सिल्वर किनारों के साथ बाहर का रंग पूरा होता है और पेट का रंग सफेद होता है। गहरे किनारों के साथ स्केल बड़ा होता है यह बड़े झीलों की मछली है। यह मछली मई जून के महीने में अंडा देती है अपने शरीर के प्रति किलो भार के अनुसार 80000 से 100000 तक अंडा छोड़ती है। इनका भार 8 से 10 महीने में 500 ग्राम से लेकर 1 किलोग्राम तक हो जाती हैं। जब 1से 1.5किलो की हो जाए तब तालाब से बाहर निकाले।
कामन कार्प
कमन कार्प मछली अपना भोजन पानी के निचले सतह से लेती हैं। नीचे दबे कुचले जैविक पदार्थ खाती है। फरवरी से अप्रैल एवं अक्टूबर से नवंबर माह के दौरान अंडे छोड़ती है। अपने वजन के प्रति किलो भार के अनुसार 80000 से 100000 के बीच अंडे छोड़ती है। ए 1 वर्ष में औसतन 1 किलो की हो जाती है। यह मछली एमएम स्वादिष्ट भोजन में इसका मुख्य स्थान है। इस मछली का मूल्य अन्य मछलियों के अनुसार अधिक मूल्य पर बिकता है।
मत्स्य पूरक आहार
मछलियों के आहार में आमतौर पर मूंगफली सरसों या तिल की खली एवं चावल के कना, गेहूं के चोकर को बराबर मात्रा में मिश्रण करके मछलियों के भार का 1 से 2% की दर से प्रतिदिन दिया जाना चाहिए। यदि ग्रास कार्प मछली का पालन किया जा रहा है तो पानी की वनस्पतियों जैसे जैसे लेमना, हाइड्रिला, नज़ाज,आदि स्थलीय वनस्पतियों जैसे कैपियर बरसीम व मक्का के पत्ते इत्यादि जितना भी वह खा सके, प्रतिदिन खिलाना चाहिए।
मछलियों के वृद्धि एवं स्वास्थ्य का निरीक्षण के बारे में –
तालाब में प्रत्येक माह जाल चलवा कर मछलियों की वृद्धि एवं स्वास्थ्य के बारे में निरीक्षण करना बहुत जरूरी होता है। जिससे मछलियों के ग्रोथ का पता चल जाता है। यदि मछलियां परियों से प्रभावित हो रही है तो एक पोटेशियम परमैंगनेट या एक प्रतिशत नमक के घोल में उन्हें डुबोकर पुनः तालाब में छोड़ देना चाहिए। यदि मछलियों के ऊपर लाल चकत्ते या गांव दिखाई दे तो मछली पालकों को तुरंत जनपदीय मत्स्य पालन कार्यालय में तुरंत संपर्क करें।
मछलियों की निकासी कब करें
12 से 16 महीने के बीच में जब मछलियां एक से डेढ़ किलोग्राम की हो जाए तब उन्हें निकलवा कर बेच देना चाहिए।