पंचायती राज और ग्रामीण सामाजिक रूपांतरण

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पंचायती राज

पंचायती राज व्यवस्था

भारत में पंचायती राज व्यवस्था प्राचीन काल से चला आ रहा है। अपने -2 समय में उस समय के आवश्यकतानुसार व्यवस्थाएं रही हैं।

आधुनिक भारत में पंचायती राज व्यवस्था गांव एवं अन्य जमीनी स्तर पर लचीले लोकतंत्र की क्रियाशीलता से है। हमारे देश में ऐसा समाज जहां आसमानताएं अत्यधिक हैं, लोकतंत्र में भागीदारी लिंग जाति और वर्ग के आधार पर बाधित किया जाता है। गांव में अक्सर जातीय पंचायतें रही है। हमेशा से ही प्रभुत्वशाली समूह को प्रतिनिधित्व करती रही हैं, यह रूढ़िवादी रहा है। यह विचारधारा के लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विरुद्ध निर्णय लेते रहे हैं।

स्थानीय गांव में कुलीन बस्तियों में उच्च जातियों के लोगों सुरक्षित परिधि से इस प्रकार गिरे हुए हैं, भारतीय समाज के लोगों का निरंतर शोषण रहा है। उच्च जातियां जनसंख्या के कुछ भाग को चुप करा देंगी।

सरकार की अवधारणा गांधीजी को भी प्रिय थी, प्रत्येक ग्राम स्वयं आत्मनिर्भर और सकारात्मक विचारधारा से कार्य करें स्वयं अपने को निर्देशित करें। ग्राम स्वराज को आदर्श मानते थे, और चाहते थे कि स्वतंत्रता के बाद भी गांव में ही शासन चलता रहे। भारत में पंचायती राज की पुनर्स्थापना स्वतंत्रता के बाद हुई बाद हुई। बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई। कमेटी ने सुझाव दिया कि भारत में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण होना चाहिए, 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद ने बलवंत राय मेहता कमेटी की सिफारिश को स्वीकार किए। महात्मा गांधी ग्राम पंचायत को आदर्श ग्राम पंचायत मानते थे। पंडित नेहरू का कहना था कि गांव के लोगों को अधिकार सौपना चाहिए, उनको काम करने दो, पंचायतों को अधिकार दो। 1992 में 73वें संविधान संशोधन के रूप में मौलिक व प्रारंभिक स्तर पर लोकतंत्र और विकेंद्रीकृत शासन का परिचय मिलता है।

भारतीय संविधान के 40 में अनुच्छेद में लिखा है कि “राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए अग्रसर होगा तथा उनको ऐसी शक्तियां और अधिकार प्रदान करेगा जो जो उन्हें शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक है। स्वतंत्रता के बाद और 1993 के पहले तक प्रत्येक राज्य अपनी इच्छा अनुसार पंचायतों का गठन व निर्वाचन करते थे। किंतु संविधान के 73 में संशोधन के बाद अब प्रत्येक राज्य अनिवार्य रूप से विधि अनुसार पंचायतों का गठन तथा उसके अनुसार स्थानीय शासन तंत्र की कार्यवाही को सुनिश्चित करने के लिए बाध्य है। इस प्रकार आप पंचायतों का गठन करना राज्य सरकारों का अनिवार्य दायित्व है।

  • पंचायती राज का लक्ष्य लोगों को विकास और योजनाओं से जोड़ना है ताकि अफसरशाही पर निर्भरता को कम किया जा सके।
  • समिति ने त्रिस्तरीय पंचायती राज प्रणाली को लागू करने की सिफारिश की थी, जो निम्न प्रकार है।1. ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत। 2. ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति, जिसके सदस्य ब्लॉक के अंतर्गत आने वाले गांव की पंचायतों द्वारा निर्वाचित किया गया हो। 3. जिला स्तर पर जिला परिषदे।
  • अशोक मेहता समिति ने द्विस्तरीय पंचायती राज प्रणाली तथा एल एम सिंघवी सिंघवी समिति ने पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा देने की सिफारिश की थी।

स्वशासन के तीन स्तर ने निर्धारित किए गए। सर्वोच्च स्तर पर जिला होगा प्रत्येक जिलों में कई प्रखंड को कई गांव में विभाजित किया गया। इस प्रकार पंचायती राज व्यवस्था में शीर्ष स्तर पर जिला परिषद होती है। प्रखंड स्तर पर पंचायत समिति है। ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत होती है। इस प्रकार गांव में निचले स्तर से स्थानीय स्वशासन या केंद्रीकृत सरकार का संचालन आरंभ हुआ, जिसे पंचायती राज व्यवस्था कहते हैं। प्रशासन का निम्न तीन श्रेणियों में बाटा गया है

पंचायती राज व्यवस्था का त्रिस्तरीय स्वरूप

अधिनियम 1992 की प्रमुख विशेषताएं

  • पंचायतों के निर्वाचन─इस अधिनियम के अनुसार राज्यपाल द्वारा नियुक्त राज्य चुनाव आयुक्त की देखरेख में चुनाव कराने की व्यवस्था है। पंचायतों के लिए निर्वाचक नामावली तैयार करने का और पंचायतों के सभी निर्वाचनों के संचालन का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण निर्वाचन आयोग में निहित होगा।
  • वित्त आयोग का गठन─ राज्य विधान मंडल को यह अधिकार दिया गया है कि वे पंचायतों को उपयुक्त स्थानीय कर लगाने, उन्हें वसूल करने और उनसे प्राप्त धन को खर्च करने के लिए प्राधिकृत कर सकते हैं और राज्य के समेकित कोश से पंचायतों को सहायता अनुदान दे सकते हैं। अप पंचायती राज संस्थाओं को पहले की अपेक्षा अधिक धन मिलेगा। इस धन के मिलने का वे भरोसा रख सकती है। इससे आयोजन प्रक्रिया में जनता की भागीदारी बढ़ेगी।
  • ग्राम सभा─ प्रत्येक गांव में एक सभा होगी और वह गांव के स्तर पर ऐसे अधिकारियों का उपभोग करेगी तथा ऐसी शक्तियों का प्रयोग करेगी जो राज्य विधान मंडल बनाकर उप बंधित करेगी। यह एक निकाय होगा जिसमें ग्राम स्तर पर पंचायत क्षेत्र में मतदाताओं के रूप में पंजीकृत सभी व्यक्ति शामिल होंगे।
  • ग्यारहवीं अनुसूची द्वारा पंचायतों के कार्य─ इस अधिनियम में संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची कि मदो मैं से कुछ ऐसी मदो का निर्देश किया गया है जो पंचायतों को सौंपी जा सकती हैं। ये मदे उन योजनाओं के ऊपर से होगी जो राज्य सरकार आर्थिक विकास तथा सामाजिक न्याय के लिए उन्हें शॉप ना चाहे।
  • पंचायतों का कार्यकाल─ इस अधिनियम में भारत के प्रत्येक राज्य की पंचायत राज्य संस्थाओं का कार्यकाल समान रूप से 5 वर्ष निश्चित किया है, किंतु अगर कोई पंचायत निरस्त कर दी जाती है तो उस हालत में उसको फिर से गठित करने के लिए उसके निरस्त किए जाने के 6 महीने के अंदर चुनाव हो जाने चाहिए।
  • पंचायतों की संरचना─ राज्य विधान मंडलों को विधि द्वारा पंचायतों की संरचना के लिए उपबंध करने की शक्ति प्रदान की गई है। परंतु किसी भी स्तर पर पंचायत के प्रादेशिक क्षेत्र की जनसंख्या और ऐसी पंचायत में निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले स्थानों की संख्या के बीच अनुपात समस्त राज्य में यथासंभव एक ही होगा। सभी स्तर की पंचायतों के सभी सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष मतदान से होगा। परंतु मध्यवर्ती तथा जिला स्तरों के अध्यक्षों का चुनाव उसके ही सदस्यों द्वारा अपने में से किया जाएगा। ग्राम पंचायतों के वार्डो की न्यूनतम संख्या 10 और अधिकतम संख्या 20 रखी गई है।
  • पंचायतों का गठन─ अनुच्छेद 243 ख त्रिस्तरीय पंचायती राज्य का प्रावधान करता है। प्रत्येक राज्य में ग्राम स्तर मध्यवर्ती स्तर और जिला स्तर पर पंचायती राज संस्थाओं का गठन किया जाएगा। किंतु उस राज्य में जिसकी आबादी 20 लाख से अधिक नहीं है, वहां मध्यवर्ती पर पंचायतों का गठन करना अनिवार्य नहीं होगा।
  • पंचायतों में आरक्षण─ पंचायतों के क्षेत्र की जनसंख्या के अनुपात में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित रहेंगे। ऐसे स्थानों को प्रत्येक पंचायत में चक्रानुक्रम से आवंटित किया जाएगा। आरक्षित स्थानों में 1/3 स्थान अनुसूचित जातियों और जनजातियों के स्त्रियों के लिए आरक्षित रहेगा।

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